Monday, October 6, 2014

सुख एवं दुःख

नमस्कार बहुत दिनोँ के बाद अपना ब्लाग लिखने जा रहा हूँ। या फ़िर यूँ कहूँ कि किसी अच्छे से विषय की तलाश में था। और आज वो मौका आ ही गया।

सुख और दुःख हमारी ज़िन्दगी के उन पहलुओं में से हैं जिन्हें कोई दरकिनार नहीं कर सकता। अगर हमारी ज़िन्दगी में सुख के क्षण आते हैं तो दुःख के भी क्षण आएंगे। हाँ ये ज़रूर हो सकता है कि समय किसी चीज़ का ज्यादा हो सकता है। सुख के समय में तो कुछ पता ही नही चलता है। और वही दुःख के समय हम तुरंत ही पागल से होने लगते हैं।

यकीन मानिए इस दुनिया में हरेक किसी के पास कुछ न कुछ दिक्कत तो है। मसलन एक बच्चे के पास उसके पढाई एवं मार्क्स को लेकर दिक्कत है जिसे लेकर वो काफी परेशान रहता है। एक 11वी या 12वी क्लास के लड़के को उसकी गर्लफ्रेंड से लेकर पढाई तक का टेंशन। हमारी युवा पीढ़ी तो गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड से सदमे से तो उबर ही नही पाती है। एक माता या पिता को अपने बच्चे के भविष्य को लेकर परेशानी।वगैरह वगैरह। तो कहने का मतलब इस दुनिया में हर कोई परेशान है। बस उसके तरीके और पैमाने अलग से है। और ऐसे समय में सारे लोगों को सिर्फ एक की ही याद आती है। और वो हैं हमारे प्यारे भगवान।

वैसे मैंने नास्तिक नही हूँ पर मुझे पूजा पाठ वगैरह में ज्यादा दिलचस्पी नही है। साल में एक या दो बार मन्दिर हो आता हूँ। हाँ इतना ज़रूर मानता हूँ कि इस दुनिया में कोई ऐसी ताकतवर अदृश्य शक्ति है जो पूरी दुनिया का संचालन कर रही है। अब आप इसे जो नाम देना चाहें ,दे सकते हैं। मेरा ऐसा मानना है कि भगवान् हमेशा हमारे साथ हैं। चाहे वो हमारी ख़ुशी के क्षण हो या गम के।

कुछ दिन पहले मैं अपने एक दोस्त से बात कर रहा था। पता चला कि उसकी शादी होते होते टूट गयी।वो इस बात को लेकर काफी परेशान था। ऐसा लग रहा था मानो उसकी ज़िन्दगी ख़त्म सी हो गयी है। मैं भी खुद को लेकर काफी परेशान था। कुछ दिनों के बाद मुझे घर जाना पड़ा। ट्रेन में बैठने के बाद भी मैं इन्हीं सब ख्यालों में खोया था। मैं अन्दर से बाहर आकर अपने डब्बे के दरवाजों पर खड़ा हो गया। शाम के करीब 4 बज रहे थे। ट्रेन द्रुत गति से जा रही थी। फिर मैंने कुछ देखा।

रेल की पटरियों के दोनों तरफ पानी का अम्बार लगा हुआ था। या फिर यूँ कहूं कि हमारी ट्रेन एक बाढ़ग्रस्त इलाके से गुज़ार रही थी। लोगों के आशियाने बाढ़ के पानी में बह गए। जहाँ तक भी नज़र जा रही थी सिर्फ पानी ही पानी नज़र आ रहा था। सहसा मेरी ट्रेन धीमी हो गयी और अंततः रुक गयी। मैं ट्रेन के दरवाज़े से निचे उतरा और एक 6 या 7 साल के बच्चे को अपने पास बुलाया जो मुझे टुकुर टुकुर देख रहा था। मैंने उससे इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब कुछ यूँ था

" हमें तो इसकी आदत सी हो गयी है। अब तीन महीने हम रेल की पटरियों के पास में रहेंगे और पानी घटने का इंतज़ार करेंगे। हमारा घर हमारी आखों के सामने डूब जाता है और हम कुछ नहीं कर पाए। 3-4 दिनों के कुछ खाया नहीं है। घर के भी सारे लोग भूखे हैं। पता नहीं क्या होगा ।ये सारी बात कहते वक़्त उसके चेहरे की मुस्कान बनी रही और मेरे हृदय को द्रवित करती रही। एक वो था जो मुझे ज्यादा कहीं परेशान होकर भी अर्धनग्न अवस्था में भी खुश था और एक मैं था जिसके पास सब कुछ होने के बाबजूद ऐसा लगता था मानो दुनिया का सारा बॊझ मैंने उठा रखा हो। मेरे हाथ मेरे पर्स भी तरफ गए और उसमे से मैंने 200 रूपये निकाल कर उस बच्चे को दिए। वो काफी खुश हुआ और पैसे हाथ में लेकर खड़ा हो गया। तभी मेरी ट्रेन ने सीटी दी और वापस मैं ट्रेन के दरवाज़े पर खड़ा हो गया। मेरी ट्रेन धीरे धीरे अपने गंतव्य की तरफ चल पड़ी। वो बच्चा अपने हाथों को हिलाकर मुझे शुक्रिया कह रहा था और मेरी आखों से आसूँ अविरल बहते जा रहे थे। तब मुझे ज़िन्दगी की दो सच्चाई को बोध हुआ।एक तो ये की हर इंसान को उसकी परेशानी दुनिया में सबसे बड़ी लगती है पर ऐसा बिलकुल नही है। दूसरा ये कि जब आपको ऐसा लगे की कोई चीज़ आपको ज्यादा परेशान कर रही है तो दूसरों की मदद कीजिए। आप को काफी सुकून महसूस होगा।

मुझे इन्हीं सब बातों पर एक गाना याद आता है कि

" दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है"
दूजों का गम देखा तो मैं अपना गम भूल गया"।

दूसरो की मदद करें और स्वस्थ रहें सुखीं रहें।


आपका

आकाश

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